[Composed on the eve of the historical day]

कभी मस्जिद की कैद है कभी मंदिर की
अब खुले दिल में भी रख ले कोई,

इक त्रिशूल है या इक तलवार रखी हर घर में
अमन का इक परिंदा भी रख ले कोई.

आब सरयू का हो या रावी का हो, सब लाल हुआ
जामे-मोहब्बत सदा मीठा ज़रा चख ले कोई,

गीता-ग्रन्थ-कुरान बहुत लड़ते देखे हैं
इक ग़ज़ल एका की मीठी सी भी लिख दे कोई.

'अ' से अल्लाह रह गया रह गया 'ग' से गणेश
मैं तो हर लफ्ज़ - हर ज़र्रे में था, ढूंढें कोई,

अदालतें लिखती हैं मेरी भी तकदीर अब तो
खुद ख़ुदा की रज़ा मद्देनज़र रख ले कोई...

-- मनीष छाबड़ा

[ आब = पानी, रज़ा = इच्छा ]